कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्। निविष्ट सरयूतीरे प्रभूत-धन-धान्यवान्।
अयोध्या नाम नगरी तत्रऽऽसीत् लोकविश्रुता। मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥
वाल्मिकी रामायण का यह श्लोक अयोध्या की प्राचीनता, वैभवता और उसके महात्मय को दर्शाता है। युगों से भारत की पुण्यनगरी के रूप में विख्यात अयोध्या भारत की प्राचीन संस्कृति और विरासत का केंद्र रही है। विभिन्न कालखंडों में रचे गये अनेक ग्रंथों में इस नगरी का उल्लेख किया गया है, जिसमें रामायण महाभारत जैसे ग्रंथ भी सम्मिलित हैं। समय समय पर भारत में आये यात्रियों ने, कवियों और अन्य विद्वानों ने भी अपने अपने अनुसार अयोध्या का वर्णन किया है।
समयचक्र के साथ अयोध्या में भी परिवर्तन हुए हैं, राजा विक्रमादित्य ने इस नगर की पुनर्रचना की एवं यहां अनेक मंदिर एवं अन्य भवनों का निर्माण कराया। भारत के नागरिकों के लिये यह नगर उनके आदर्श प्रभु श्रीराम जी की जन्मस्थली के रूप में सदैव ह्रदय में बसा रहा और संपूर्ण भारत के सभी क्षेत्रों के लोगों के लिये उनकी आस्था का केंद्र भी रहा।
संस्कृत नाटककार भास ने भगवान श्रीराम का वर्णन अपनी रचना में इस प्रकार किया है।
नमो भगवते त्रैलोक्यकारणाय नारायणाय
ब्रह्मा ते ह्रदयं जगतत्र्यपते रुद्रश्च कोपस्तव
नेत्र चंद्रविकाकरौ सुरपते जिव्हा च ते भारती
सब्रह्मेन्द्रमरुद्रणं त्रिभुवनं सृष्टं त्वयैव प्रभो
सीतेयं जलसम्भवालयरता विश्णुर्भवान ग्रह्यताम
श्रीराम को विष्णु अवतार में पूजे जाने की परंपरा रही है जिसके विभिन्न प्रमाण उपलब्ध हैं।
वर्षों तक अपराजेय रही अयोध्या पर भारत पर हुए विदेशी आक्रमणों का प्रभाव भी पड़ा। विदेशी आक्रमणकारी सालार मसूद जब अयोध्या की ओर विध्वंस की मानसिकता से बढ़ा तो अयोध्या से कुछ दूर स्थित बहराइच में राजा सुहैलदेव ने उसे पराजित किया और रामभक्ति की परंपरा अयोध्या में नियमित रूप से चलती रही।
बाबर के आक्रमण के पश्चात अयोध्या पर संकट बढ़ गया और उसके सेनापति मीरबाकी ने अयोध्या स्थित श्रीरामजन्मभूमि मंदिर को गिरा कर वहां एक ढांचा स्थापित किया। इसके पश्चात एक लंबे संघर्ष का कालखंड आरंभ हुआ जिसमें अनेक बार श्रीरामजन्मभूमि की मुक्ति के लिये प्रयास किये जाते रहे और अनेक लोगों ने अपना बलिदान दिया।
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